एक समय की बात है, एक महिला महात्मा गांधी के पास आई और उनसे पूछा कि वे उनके बेटे से कहे कि वह शक्कर खाना छोड़ दे। गांधी जी ने उस महिला को अपने बच्चे के साथ एक हफ्ते बाद आने के लिए कहा। पूरे एक हफ्ते बाद ही वह महिला अपने बच्चे के साथ वापिस आई और गांधी जी ने उसके बेटे से कहा, ‘‘बेटा कृपया शक्कर खाना छोड़ दो।’’ जाते-जाते उस महिला ने महात्मा गांधी का शुक्रिया अदा किया और जाने के लिए पीछे मुड़ ही रही थी कि उसने गांधी जी से पूछा कि उन्होंने यही शब्द एक हफ्ते पहले उसके बेटे से क्यों नहीं कहे थे। गांधीजी ने नम्रता से जवाब दिया, ‘‘क्योंकि एक हफ्ते पहले, मैंने शक्कर खाना बंद नहीं किया था।’’
यदि हमें दुनिया को बदलना है, तो सबसे पहले हमें अपने आपको बदलना होगा। यही महापुरुष महात्मा गांधी के शब्द थे। हम सभी में दुनिया को बदलने की ताकत है, पर इसकी शुरुआत खुद से होती है। कुछ और बदलने से पहले हमें खुद को बदलना होगा। हमें खुद को तैयार करना होगा, अपनी काबिलियत को अपनी ताकत बनाना ही होगा। अपने रवैये को सकारात्मक बनाना होगा। तभी हम वो हर एक बदलाव ला पाएंगे जो हम सचमुच में लाना चाहते हैं।
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, हर घड़ी, हर पल बदल रहा है। यह सृष्टि का चक्र है, इसके साथ ताल-मेल रखने के लिए, हमें समय के साथ निरंतर बदलाव लाना है, चाहे जीवन में कितने भी उतार-चढ़ाव आए, हमें निरंतर चलना है। नदी का पानी अगर एक तालाब का रूप ले लेता है तो यही रुकावट एक दिन गंदे पानी में तब्दील हो जाती है। नदी का पानी उतार-चढ़ाव के साथ या सर्पाकार होकर निरंतर बहता रहता है। नदी का हर मोड़ के साथ बहना ही उसका निरंतर परिवर्तन है। हमारा जीवन भी समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। उस समय की परिस्थिति से अपनी स्थिति का ताल-मेल रखने के लिए हमें अपने आप में परिवर्तन करना आवश्यक है। इसीलिए हमें परिवर्तन से डरना नहीं चाहिए बल्कि परिवर्तन के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलना चाहिए, तभी सफलता हासिल होगी। अगर जीवन में प्रगति चाहते हो तो परिवर्तन होना स्वाभाविक है। जैसे हर रात के बाद दिन होना स्वाभविक है, वैसे ही परिवर्तन हमारे जीवन में एक स्वर्णिम सवेरा बनकर आता है। जीवन में आने वाली हर नई परिस्थिति हमारे लिए वर्तमान में परीक्षा और भविष्य में शिक्षा का कार्य करती है।
हम बहुत कुछ चाहते हैं कि यह दुनिया बदल जाए। हमारे सामने वाला अगर अपने में ऐसा परिवर्तन करता है तो सुधर जाएगा, उसे ऐसा नहीं, वैसा करना चाहिए था लेकिन वह मेरी बात कहां मानता है, बस मैं तो तंग हो गया हूं। इस तरह से यदि हम यह सोच रखेंगे कि दुनिया बदले तो मैं बदलूं, तो यह गलत होगा। दूसरे को बदलने के चक्कर में हम स्वयं में बदलाव लाने की जगह बदला लेने की भावना में आ जाते हैं। हममें एक आदत हमेशा होती है कि हम अवगुण दूसरों में देखते हैं और अच्छाई अपने आप में देखते हैं और हम दूसरे की अच्छाई के बदले अवगुण को उठाते हैं। अगर देखा जाए तो ऐसा लगता है कि आजकल पहले से ज्यादा लोग मंदिर जाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, तीर्थ यात्राएं आदि करते हैं, परंतु अपने आप में परिवर्तन नहीं लाते, रामायण, महाभारत, गीता आदि का 100 बार पाठ करते हैं। सब कुछ अच्छा है, बहुत सुंदर है, लेकिन वे श्रेष्ठ मूल्य या धारणाएं अपने अंदर नहीं लाते, सब कुछ तोते जैसा रट कर बोलते हैं। अगर वही बातें हम अपने जीवन में अपनाते हैं, तो अपने आप में बड़ा बदलाव महसूस करेंगे। अगर हम स्वयं बदलेंगे तो सारा परिवार बदलेगा, परिवार बदलेगा तो देश बदलेगा और देश बदलेगा तो एक दिन विश्व बदलेगा। आखिर बदलाव की डोरी हमारे हाथ में है बस शुरुआत मेरे से हो। हम अपने में परिवर्तन ला सकते हैं। एक कहावत है, ‘‘ऐसे नर करनी करे तो नर नारायण हो।’’ यानी ऐसे व्यक्ति जो स्वयं की करनी में विश्वास करते हों, वे ईश्वर के समकक्ष होते हैं।
महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में उस महिला के साथ हुई बातचीत में बहुत स्पष्ट वाक्य में उन्होंने कहा, ‘‘पहले खुद में बदलाव लाएं, जो बदलाव आप दुनिया में देखना चाहते हैं।’’ यह प्रसंग आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उन्होंने उस समय कहा बल्कि आज उसकी ज्यादा आवश्यकता है। यह मानवीय प्रवृत्ति है कि हम अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य से तो बचना चाहते हैं, परंतु अधिकार सुख का भरपूर लाभ उठाना चाहते हैं। हम अपनी उपलब्धियों का सेहरा तो खुद के सर पर बड़े गर्व से बांधते हैं, परंतु गलतियों का ठीकरा दूसरों पर ही फोड़ते हैं। इसी संदर्भ में कहा भी गया है, ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’।
हम यह तो चाहते हैं कि दूसरा सामने वाला व्यक्ति वही करे, जो हम चाहते हैं, परंतु हम खुद को कभी नहीं देखते। हम दूसरों से इज्जत, स्वागत और प्यार तथा वफादारी तो चाहते हैं, परंतु हम खुद उनकी भावनाओं की उपेक्षा कर देते हैं। भला जब तक हम दूसरों को इज्जत और प्यार नहीं देंगे तो हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं। दरअसल, बात यही है कि बदलना हमें खुद को होता है पर हम सबसे पहले संसार को ही बदल डालना चाहते हैं, हम दूसरों से ढेर सारी उम्मीदें और अपेक्षाएं पाल लेते हैं और जब हमारी ये उम्मीदें और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती तो हम खुद की बजाय उन्हीं लोगों को कोसने लगते हैं। गालिब का एक शेर है कि—
‘‘उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा,
धूल चेहरे पर थी और आईंना साफ करता रहा।’’
वास्तव में ये चेहरे की धूल हमारे अवगुण और द्वेष ही हैं। जो हमें खुद ही दूर करने हैं। आईना बदलने से हमारे दोष दूर नहीं होंगे। अब बात करे स्वच्छता को लेकर तो हम आस-पास फैली गंदगी का ठीकरा नगर निगम के सिर पर फोड़ देते हैं जबकि हम चाहें तो यह साफ-सफाई हम खुद भी कर सकते हैं। खुद ही हमें अपने आस-पास की सफाई रखनी होगी। हमेशा सरकार या प्रशासन गलत नहीं होता, कुछ गलतियां हम जान-बूझकर करते हैं। इसलिए यदि आप अपने आस-पास के वातावरण को साफ रखेंगे तो आपको देखते-देखते आपके आस-पास लोग भी अपने आप साफ-सफाई रखेंगे। यही क्रम रहा तो एक दिन जरूर आएगा कि पूरा देश स्वच्छता का महा जश्न मना रहा होगा। हमारा योगदान जरूर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करेगा। इसी प्रकार किसी संगठन सरकारी विभाग या उद्योग में यदि उच्च अधिकारी केवल उपदेश देता रहे तथा स्वयं के आचरण को ठीक न करे, तो उसके नीचे वाले अधिकारी और कर्मचारी काम करने के लिए उत्प्रेरित नहीं होंगे। स्वर्णिम सिद्धांत हैं—‘‘दूसरों को उत्प्रेरित करने के पहले, स्वयं उत्प्रेरित हों।’’ जहां हम अपने कर्तव्यों को सेवा-भाव के साथ स्वीकार करेंगे क्योंकि मनुष्य तभी विजयी होगा जब वह जीवन संघर्ष की बजाय परस्पर सेवा हेतु संघर्ष करेगा। आज के दौर में जहां गांधी जी की लाठी का स्थान बंदूकें ले रही हैं, एक थप्पड़ के बदले दूसरे की हत्या की जा रही है। वैसे दौर में जरूरी हो गया है कि हम खुद को बदलें। हर व्यक्ति के अंदर की दूषित मानसिकता बदल गई तो समाज भी बदलेगा। अगर हम किसी से अच्छा व्यवहार करेंगे तो सामने वाला भी ऐसा करने को मजबूर होगा, क्योंकि अगर बंदूक का जवाब बंदूक, सर काटने का जवाब सर काट कर दिया जाता तो धीरे-धीरे यह दुनिया खत्म हो जाती। अगर सामने वाला कुछ गलत मंशा से आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है तो कोई बात नहीं, आप निस्वार्थ होकर उससे प्रेम-व्यवहार कीजिए। निश्चित तौर पर आपको देखकर सामने वाले व्यक्ति के अंदर बदलाव आएगा।
एक बार एक व्यक्ति बुद्ध के पास आकर उन्हें गालियां देने लगा,जब तक वह बुद्ध को गालियां देता रहा, वे शांतिपूर्वक सुनकर मुस्कुराते रहें। वह व्यक्ति आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखता ही रहा और इस व्यवहार का कारण पूछा तब बुद्ध ने कहा कि जिस तरह से अगर तुम कोई सामान मुझे दो और मैं न लूं तो वह वस्तु तुम्हारे पास ही रह गई। वह व्यक्ति शर्मिंदा हो गया और अपने इस बर्ताव के लिए बुद्ध के पैरों में गिर पड़ा। हम सबको सामाजिक बदलावों के लिए अपनी आदतों, विचारधारा और जीवन-शैली की रूढ़िवादिता को बदलना होगा। हमें सकारात्मक अर्थों में धर्म को अपनाना होगा जिसका अर्थ है—धारण करना। जब तक हम गांधी जी के उन मूल तत्वों को खुद में धारण नहीं करेंगे, तब तक दूसरों में दोष ढूंढना बेईमानी है।