सकल घरेलू उत्पाद किसी भी देश की संपन्नता के मूल्यांकन का सही सूचकांक नहीं हो सकता, हां इतना अवश्य है कि इससे उस देश की अर्थव्यवस्था या आर्थिक स्वरूप का अंदाजा अवश्य लगाया जा सकता है कि वह देश विकास के किस स्तर पर है, पर इसे देश की संपूर्ण खुशहाली का मापदंड नहीं मान सकते। विलियम एच. गेट्स के अनुसार—‘‘देखा गया है कि जिन देशों की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत हैं, वहां भी विकास कार्यक्रमों में अधिक निवेश नहीं किया जाता। मेरा मानना है कि देश के शीर्ष नेतृत्व को कड़े फैसले करने चाहिए और सोचना चाहिए कि देश के सीमित संसाधनौं का उपयोग वे किस प्रकार करें। सवाल यह है कि हम अपनी जनता के विकास को किस तरह आंकते हैं। इसका एक माध्यम जी.डी.पी. हो सकता है।’’
जी.डी.पी., एक अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन काद्ध एक बुनियादी माप है। यह एक वर्ष में एक राष्ट्र की सीमा के भीतर सभी अंतिम उत्पादों और सेवाओं का बाजार मूल्य है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. का पता लगाने के लिए जी.डी.पी. को उस वर्ष देश की कुल जनसंख्या से विभाजित किया जाता है, लेकिन यह तरीका सही नहीं है, क्योंकि इससे सही आंकड़े नहीं मिल पाते। अतः किसी देश की जी.डी.पी. से उसके विकास या संपन्नता का सही आकलन नहीं किया जा सकता क्योंकि अलग-अलग समय में किसी उत्पाद के मूल्य की तुलना करना बहुत मुश्किल होता है। जैसे 60वें दशक तक एनसाइक्लॉपीडिया का सेट बहुत महंगा होता था, फिर भी पढ़ाकू बच्चों के माता-पिता उन्हें खरीद कर देते थे, क्योंकि उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण होता था, पर अब हालात बदल गए हैं, क्योंकि इंटरनेट पर सारी जानकारियां मुफ्त मिल जाती हैं। अब इस बात को जी.डी.पी. में कैसे शामिल किया जा सकता है?
भारत की आत्मा गांवों में बसती है, यानी 60% ग्रामीण आबादी वाले देश के संपूर्ण विकास का जब भी संदर्भ आएगा, गांवों को प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए। सीधे अर्थ में कहा जाए तो आत्मनिर्भर और शहरी सुविधाओं से पूर्ण गांवों की उपस्थिति ही संपूर्ण विकास का द्योतक है। साथ ही, शहरों में उभरते मध्यम वर्ग की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी विकसित भारत का एक आवश्यक अंग होना चाहिए। यह सर्वविदित है कि आंकड़ों में अभी भारत विश्व की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था बन चुका है और चीन भी फिलहाल जी.डी.पी. प्रतिशत वृद्धि में हमसे पीछे है। देखना यह है कि पिछले दो दशकों में हुई जी.डी.पी. वृद्धि या भविष्य में होने वाली तीव्र वृद्धि संपूर्ण भारत के विकसित स्वरूप को बयां करती हैं या फिर इससे सिर्फ ‘इंडिया’ ही लाभान्वित हो रहा है और उसके मुकाबले भारत कहीं पीछे छूट गया है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक हमारे देश के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी की आय विश्व के 19 देशों से अधिक है, वहीं तस्वीर का दूसरा पहलू है कि देश की 20-25 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही हैं, 30% आबादी कुपोषण से पीड़ित है और 35% लोग अभी तक निरक्षर हैं। क्या इस स्थिति को देश की खुशहाली का मूल्यांकन कहा जा सकता है। सामान्य तौर पर सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों के आधार पर यह मान लिया जाता है कि अमुक देश के नागरिक कितने संपन्न या खुशहाल होंगे अथवा कितने गरीब और मूलभूत सुविधाओं से वंचित होंगे। वर्तमान में जबकि वैश्वीकरण का दौर है और विकास की एक अंधी दौड़ में हम सब शामिल हैं, आए दिन पर्यावरण को ताक पर रखने का खामियाजा हम सबको भुगतना पड़ रहा है, हमें खुशियों का पैमाना और जीवन से संतुष्टि के आधारों को सुनिचित करना होगा। वर्तमान इंसान, जो इंसान कम और मशीन अधिक हो गया है उसकी जीवन-शैली पर शायर शहरयार की ये पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं—
‘‘सीने में जलन, आंखों में तूफान-सा क्यूं है
इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूं है।’’
क्योंकि सिर्फ भौतिक जीवन की खुशियों के आधार पर, जीवन की सच्ची खुशियां प्राप्त नहीं हो सकती। दरअसल सकल घरेलू खुशहाली का अर्थ बहुत व्यापक है। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, जी.डी.पी. वृद्धि, मानव विकास सूचकांक, क्रय शक्ति वृद्धि, शेयर बाजार में उछाल इत्यादि मात्र एक पक्ष को दर्शाते हैं, लेकिन फिर भी कई लोगों की नजर में जी.डी.पी. वृद्धि और मानव विकास सूचकांक काफी हद तक एक इकाई के रूप में देश के विकास को तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत करने वाले बेहतर पैमाने हैं।
उल्लेखनीय है कि सकल घरेलू खुशहाली की संकल्पना 1970 के आस-पास भूटान में अस्तित्व में आई, जो कि आर्थिक दृष्टि से एक कमजोर देश माना जाता है। यह अपने किस्म के विकास के प्रति एक अलग संकल्पना थी। 1990 के आस-पास संयुक्त राष्ट्र के विकास क्रम में भी इसे शामिल कर लिया गया। राष्ट्रीय खुशहाली को मापने के लिए भूटान ने अपने कुछ कारक बनाए; जैसे—(1) प्रति व्यक्ति उच्च आय, (2) अच्छा अभिशासन, (3) पर्यावरणीय संरक्षण तथा (4) सांस्कृतिक प्रोत्साहन आदि। अगर हम भूटान के खुशहाली के मानकों की तुलना संयुक्त राष्ट्र के मानकों से करें, तो अंतिम बिंदु ‘सांस्कृतिक प्रोत्साहन’ में भूटान अलग विशेषता रखता है, क्योंकि एक लंबे समय तक हिंदू राष्ट्र तथा राजाश्रित होने के कारण कुछ नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के आधार को भी वहां शामिल किया गया है। किसी भी देश के नागरिकों की खुशहाली सामूहिक रूप से इन्हीं मानकों के आधार पर मापी जाती है। इस दृष्टि से भूटान एक खुशहाल देश है। वहां के निवासी स्वयं संतुष्ट हैं जिस प्रकार भारत में आदिवासी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अभी हाल में ही आई रिपोर्ट द्वारा भी समझा जा सकता है, जिसमें भारत को ‘आत्महत्या की राजधानी’ घोषित किया गया है और इनमें भी ज्यादा संख्या 15-29 वर्ष के युवाओं की है, जो लगभग 36% के आस-पास है। आखिर क्या कारण है कि हमारी आने वाली पीढ़ी जिसे नई ऊर्जा और जोश का पुंज माना जाता है इस तरह की नकारात्मकता से ग्रस्त हो गई है और जीवन के प्रति असंतुष्टि का भाव बढ़ता जा रहा है। देश के नौजवान बेरोजगार हैं, शिक्षा का स्तर अत्यधिक निम्न है, भ्रष्टाचार, गरीबी आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जो देश की सकल घरेलू खुशहाली के मानकों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। जब सकल घरेलू उत्पाद के आकार की बजाय आम लोगों के जीवन-यापन के स्तर को देखा जाता है तो देश की स्थिति कुछ और ही नजर आती है। बिना सामाजिक स्तर पर बेहतर प्रदर्शन किए हम कैसे विकास का दावा कर सकते हैं? या देश की खुशहाली या संपन्नता का आधार मान सकते हैं। गरीबी पर देश के विकास का अभाव सिर्फ आंकड़ों में दिखाई देता है। गरीबी मुक्त भारत का सपना अभी सपना ही है क्योंकि आजादी के 75 साल होने को हैं और अभी भी 20-25% आबादी गरीब है। गरीबी में क्षेत्रीय विषमता है। बिहार, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में गरीबों की मौजूदगी ज्यादा है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। जहां एक ओर बुलेट टे्रन का सपना संजोया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर देश के ग्रामीण इलाकों के रास्ते कच्चे और गढ्डों से भरे पड़े हैं। मान लो हमाराद्ध जी.डी.पी. वृद्धि कर रहाद्ध है तो फिर क्यों हमारा मानव विकास सूचकांक वैश्विक स्तर पर दयनीय है? अगर हम अपने देश के नागरिकों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पानी, हवा नहीं दे पा रहे हैं तो जी.डी.पी. में वृद्धि भले हो मगर देश सकल घरेलू खुशहाली का तमगा हासिल नहीं कर सकता। प्रति व्यक्ति आय और जी.डी.पी. वृद्धि को अकसर सरकार के द्वारा खुशहाली के रूप में पेश किया जाता है, परंतु सिर्फ खुशहाली सूचकांक के रूप में देखा जाए, तो हम बहुत पिछड़े नजर आते हैं। गौरतलब है कि जी.डी.पी. वृद्धि और प्रति व्यक्ति आय को अगर महंगाई के संदर्भ में देखा जाए तो वृद्धि मात्र मृग-मरीचिका ही साबित होगी।
सकल घरेलू उत्पाद कभी भी हमारे अंतर्मन को नहीं पढ़ सकता है और जीवन के प्रति संतुष्टि और खुशहाली की भावना सिर्फ पैसे और उच्च आय से नहीं आती है। अमेरिका के आंकड़े गवाह हैं कि वहां पिछले कुछ वर्षों में ‘उच्च आय’ दर्ज की गई है परंतु खुशियों का ग्राफ नीचे गिरा है और जीवन के प्रति संतुष्टि की भावना घटी है। खुशी एक भाव है और यह जीवन की एक मनःस्थिति भी है। किसी भी देश के नागरिकों की खुशियां, संपन्नता के साथ ही साथ उनकी स्वतंत्रता में भी निहित हैं जिसके लिए एक ईमानदार शासन प्रणाली का होना भी बहुत जरूरी है। ईमानदार शासन-व्यवस्था ही समाज में संसाधनों का एकता पर आधारित वितरण सुनिश्चित कर सकता है जो सकल घरेलू उत्पाद के समांतर चलना चाहिए।
किसी भी देश की खुशहाली में धार्मिक सुधार, सद्भाव और आंतकवाद से मुक्ति भी प्रमुख बिंदु हैं, क्योंकि इन आधारों पर फैली अशांति किसी भी रूप में उस देश के नागरिकों को खुश नहीं रहने देगी और जिंदगी को लेकर हर पल डर की भावना से कभी भी उनका सामाजिक, मानसिक और शैक्षणिक विकास संभव नहीं है। दूसरी ओर धार्मिक रूढ़िवादिता और कट्टरपंथी भी देश के खुशहाल होने में बाधा उत्पन्न करते हैं। देश में होने वाले सांप्रदायिक दंगे, जैसे मुज्जफरनगर दंगा, मथुरा का जवाहर पार्क दंगा, गौ हत्या के नाम पर दलितों और मुस्लिमों का शोषण, आरक्षण तथा विभिन्न बिन्दुओं पर आए दिन प्रायोजित हिंसा तथा सार्वजनिक सम्पत्ति की बर्बादी इत्यादि अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो देश के विकास और खुशहाली में बाधा उत्पन्न करते हैं। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि गरीबी और विकास की बहस जब-जब छिड़ी है, तब-तब उच्च सकल घरेलू उत्पाद की आड़ में कुछ वास्तविक मुद्दों को सरकारों द्वारा दबा दिया गया है। अगर उच्च जी.डी.पी. ही संपूर्ण राष्ट्र की संपन्नता की सूचक है तो आखिर देश की आधे से अधिक जनसंख्या गरीबी झेलने को मजबूर क्यों है? क्यों जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित है।
अतः किसी भी राष्ट्र की अमीरी का सूचक उस राष्ट्र के लोगों की खुशियां ही हैं जो सिर्फ जी.डी.पी. के आधार पर नहीं आंकी जा सकती, क्योंकि कभी-कभी जी.डी.पी. उच्च वृद्धि और देश की खुशियां विरोधाभासी लगती हैं। खुशियां वहीं आ सकती हैं जिस देश में भ्रष्टाचार मुक्त शासन प्रणाली हो, लैंगिक और जातीय भेदभाव मुक्त समाज हो, नागरिक समानता तथा पर्यावरण स्वच्छ हो। अतः जहां सबको एक समान शिक्षा दी जाए, सबका विकास एक साथ किया जाए वहीं समुन्नत राष्ट्र होगा और वहीं खुशहाली होगी।…