अर्थोपार्जन के लिए स्त्रियों द्वारा बनाए गए यौन संबंध वेश्यावृत्ति कहलाता हैं। इसमें उस भावनात्मक तत्व का अभाव होता है, जो अधिकांश यौन संबंधों का एक प्रमुख अंग है। विधान एवं परंपरा के अनुसार वेश्यावृत्ति उपस्त्री सहवास, परस्त्रीगमन एवं अन्य अनियमित वासनापूर्ण संबंधों से भिन्न होती है। संस्कृत में ऐसी स्त्री के लिए कई नाम हैं जैसे; वेश्या, रूपाजीवा, पण्यस्त्री, गणिका, नगर-वधू, लोकांगना, नर्तकी आदि। अतः यह कहा जा सकता है कि आर्थिक लाभ के लिए यौन संबंध बनाना वेश्यावृत्ति है। शारीरिक संबंधों के लिए पैसों का आदान-प्रदान करना इसकी मुख्य पहचान है।
यह वेश्यावृत्ति प्राचीन काल ही से सभी देशों में विद्यमान है। कुछ देशों जैसे—ब्रिटेन, लक्जमबर्ग, इटली, नीदरलैंड, बंगलादेश, फ्रांस, थाइलैंड, अमेरिका के नेवादा राज्य, अर्जेंटीना और पेरू आदि देशों में कहीं पूर्ण, कहीं सीमित रूप से वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता मिली है। प्राचीन देशों में वेश्यावृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों के साथ संबंधित रही है। इसे हेय न समझकर प्रोत्साहित भी किया जाता रहा। मिस्र, असीरिया, बेबीलोनिया, पर्शिया आदि देशों में देवियों की पूजा एवं धार्मिक अनुष्ठानों में अत्यधिक अमर्यादित वासनात्मक कृत्यों की प्रमुखता रहती थी तथा देवस्थान व्याभिचार के केंद्र बन गए थे। प्राचीन यूनान के एथेंस नगर में वेश्यावृत्ति के संबंध में निर्धारित नियम जनस्वास्थ्य एवं शिष्टाचार को दृष्टिगत कर अभिकल्पित थे। वेश्यालयों पर राज्य का अधिकार था जो क्षेत्र-विशेष में सीमित थे। रोमवासियों के दृष्टिकोण में यहूदियों के जातीय गौरव एवं मिश्रवासियों के सार्वजनिक शिष्टाचार सम्यक समावेश था। समाज में स्त्रियों के लिए प्रतिष्ठा थी। वेश्या के लिए पंजीकरण आवश्यक था। उत्सव विशेष की शोभायात्रा में आगे-आगे अपना प्रदर्शन करती हुई नर्तकियां किसी-न-किसी रूप में प्राचीन भारतीय समाज में सदैव अपना सम्मानित स्थान प्राप्त करती रहीं हैं। प्रारंभ में ये धर्म से संबंधित थीं और चौंसठ कलाओं में निपुण मानी जाती थीं जिसे खजुराहो के मंदिरों में चित्रित किया गया है। मध्ययुग में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक9 वर्ग बनता गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गई, पर यौन संबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित यौन संबंधों द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका हेतु लज्जा तथा संकोच को त्याग कर अश्लीलता के उस स्तर पर उतरना पड़ा जहां पशुता प्रबल होती है।
ज्यादातर देश और समाज इसे एक व्यवसाय के तौर पर ही देखते हैं। भारत में इस व्यवसाय को गैर-कानूनी और अतिनिंदनीय माना जाने लगा है, जबकि प्राचीन समय में ऐसा नहीं था। आधुनिक समाज में इसके कई रूप सामने आते हैं। समाज में इसकी उपस्थिति के लिए भी स्वर उठे और इसके समर्थन में भी स्वर उठे हैं। वेश्यावृत्ति के समर्थक परंपरा, मनोवैज्ञानिक यथार्थ, स्त्री स्वातंत्र्य, आर्थिक क्रियाकलाप और सामाजिक आवश्यकता की कसौटी पर कसते हुए इसके समर्थन और वेश्यावृत्ति को वैधानिक बनाए जाने की गुहार लगाते हैं, जबकि दूसरी ओर वेश्यावृत्ति के विरोधी घोर विवशता की उपज, सामाजिक बुराई, पुरुषोचित्त मानसिकता का उत्पाद आदि के पैमाने पर इसका विरोध करते हैं।
वेश्यावृत्ति के समर्थक इसके कारणों के आधार पर इसे अवैध नहीं मानते बल्कि उनकी स्वातंत्र्य इच्छा का वे समर्थन करते हैं। वेश्यावृत्ति के निम्न कारण हो सकते हैं—
1. आर्थिक कारण— अनेक स्त्रियां अपनी एवं आश्रितों की क्षुधा की ज्वाला शांत करने के लिए विवश हो इस वृत्ति को अपनाती हैं। जीवकोपार्जन के अन्य साधनों के अभाव तथा अन्य कार्यों के अत्यंत श्रमसाध्य एवं अल्पवैतनिक होने के कारण वे वेश्यावृत्ति की ओर आकर्षित होती हैं। कानपुर में किए गए एक अध्ययन के अनुसार 65% वेश्याएं आर्थिक कारण की वजह से इस वृत्ति को अपनाती हैं। कुछ स्त्रियां अच्छी जीवन-शैली की ललक में इसे अपनाती हैं।
2. सामाजिक कारण— समाज ने अपनी मान्यताओं, रूढ़ियों और त्रुटिपूर्ण नीतियों द्वारा इस समस्या को और भी जटिल बना दिया है। विवाह संस्कार के कठोर नियम, दहेज प्रथा, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, सामान्य चारित्रिक भूल के कारण सामाजिक बहिष्कार, अनमेल विवाह, तलाक प्रथा का अभाव आदि अनेक कारण इस घृणित वृत्ति को अपनाने में सहायक होते हैं। इस वृत्ति को त्यागने के पश्चात् अन्य कोई विकल्प नहीं होता। ऐसी स्त्रियों के लिए समाज के द्वार सर्वदा के लिए बंद हो जाते हैं। वेश्याओं की कन्याएं समाज द्वारा सर्वदा त्याज्य होने के कारण अपनी मां की ही वृत्ति अपनाने के लिए बाध्य होती हैं। वेश्याएं तथा स्त्री व्यापार में संलग्न अनेक व्यक्ति भोली-भाली बालिकाओं की विषम आर्थिक स्थिति का लाभ उठाकर तथा सुखमय भविष्य का प्रलोभन देकर उन्हें इस व्यवसाय में प्रविष्ट कराते हैं। वेश्यावृत्ति का एक प्रमुख आधार मनोवैज्ञानिक है। कतिपय स्त्री-पुरुषों की काम प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि इसकी तृप्ति मात्र वैवाहिक संबंध द्वारा संभव नहीं होती। उनकी कामवासना की स्वतंत्र प्रवृत्ति उन्मुक्त यौन संबंध द्वारा पुष्ट होती है। विवाहित पुरुषों के वेश्यागमन तथा विवाहित स्त्रियों के विवाहेत्तर संबंध में यही प्रवृत्ति क्रियाशील रहती है। आर्थिक और सामाजिक कारणों के अलावा कई अन्य कारण भी हैं जो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देते हैं। परिवार के पालन-पोषण के लिए लगभग 22% महिलाएं इस व्यवसाय को चुनती हैं, सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 13.87% लड़कियां दोस्तों के चक्कर में पड़कर वेश्यावृत्ति में आती हैं, दलाल के चक्कर में फंसकर लगभग 23% महिलाएं आती हैं। 13% ऐसी महिलाएं होती हैं, जो घर या रिश्तेदारों द्वारा यौन शोषण की शिकार हो चुकी होती हैं। 10% महिलाएं प्यार में धोखा खाने पर इस व्यापार में आईं या फिर उन्हें शादी का झूठा प्रस्ताव देकर इस व्यवसाय में धकेल दिया गया। हमारे भारतीय समाज में कुछ ऐसी प्रथाएं हैं जो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देती हैं—जैसे—बंगाल की चुकरी प्रथा, जिसके अंतर्गत यदि कोई व्यक्ति कर्ज चुकाने में नाकाम रहता है, तो उसके परिवार की महिलाओं को अपना शरीर देकर कीमत चुकानी होती है। इसके अंतर्गत एक साल तक लड़की को वेश्या के रूप में मुफ्त में काम करना होता है। गुजरात में स्थित वाडिया गांव में बेटियां होने पर जश्न मनाया जाता है वो सिर्फ इसीलिए क्योंकि उन्हें बड़ी होकर वेश्यावृत्ति की प्रथा को आगे बढ़ाना है। सदियों से कई सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं किसी-न-किसी रूप में इस व्यवसाय को प्रोत्साहित करती रहीं हैं। इन्हीं सब कारणों एवं आधार पर वेश्यावृत्ति के समर्थकों का मानना है कि दुनिया के इस प्राचीनतम व्यवसाय की उचित ढंग से पहचान की जाए और उसे वैधानिकता के दायरे में लाया जाए ताकि इस व्यवसाय में शामिल स्त्रियों और उनके ग्राहकों की सुरक्षा हो सके। कानूनी जामा पहनाए जाने के बाद इस व्यवसाय को कर दायरे में लाया जा सकेगा और इससे सरकार को राजस्व की प्राप्ति हो सकेगी। इससे इस व्यवसाय को अपनाने वाली महिलाओं और उनके ग्राहकों के स्वास्थ्य की भी देखभाल हो सकेगी। कुछ देशों ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए जैसे थाईलैंड, फ्रांस आदि ने इस व्यवसाय का उचित नियमन किया है।
वेश्यावृत्ति के विरोधियों का तर्क है कि जो व्यवसाय सदियों से चले आ रहे हैं क्या इस आधार पर बदले या रोके नहीं जा सकते कि उनकी जड़ें बेहद पुरानी हैं? जैसे जानवरों का व्यापार या उनका शिकार प्राचीन काल से चला आ रहा है तो फिर आज इसे रोकने का क्या औचित्य है? तो क्या प्राचीनता का तर्क स्वीकार किया जाए? जैसे कि समर्थकों का कहना है इस आधार पर तो सती प्रथा को भी दोबारा मान्यता मिल जानी चाहिए। वह भी प्राचीनतम प्रथा रही है। अतः किसी बात को महज इसीलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वो प्राचीनतम है। इस तर्क पर तो हमें लोकतंत्र को छोड़कर राजतंत्र स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि बात सरकार की आय की हो तो उन्होंने तर्क का विरोध करते हुए कहा कि सरकार का मकसद केवल कर की उगाही करना भर ही नहीं बल्कि उसके व्यवसाय के नियमन का भी ध्यान रखना होगा। समाज में आज भी कुछ व्यवसायों को मान्यता प्राप्त नहीं है। पेशेवर हत्याएं, राजहानी, चोरी, डकैती इत्यादि लोग करते हैं और प्राचीन काल से ही कर रहे हैं तो क्या सरकार उन्हें भी प्राचीनता के तर्क पर वैधानिकता दे सकती हैं। ये सभी व्यवसाय मानवता के विरोधी हैं इसलिए वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।
वेश्यावृत्ति के समर्थकों का मानना है समाज में अगर वेश्यावृत्ति न हो तो परिवार नामक संस्था ही नहीं रहेगी। परिवार के लिए या उसके बचे रहने के लिए जरूरी है कि समाज में वेश्यावृत्ति बनी रहे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री टॉलकॉट पारसंस ने वेश्यावृत्ति को परिवार के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए एक सेफ्टी वॉल्व के तौर पर देखा है। इस तर्क का सार यह है कि पुरुष की शारीरिक जरूरतें अगर परिवार के भीतर पूरी नहीं होती हैं तो यह व्यवसाय उसे एक अवसर प्रदान करता है कि वह अपनी क्षुधा को शांत कर ले, क्योंकि अगर उसकी यह नैसर्गिक भूख शांत नहीं हुई तो घर में कलह और हिंसा की नौबत आ सकती है और ऐसा व्यवहार परिवार के अस्तित्व के लिए घातक हो सकता है। इसके अलावा समर्थकों का मानना है यह व्यवसाय स्त्री स्वातंत्र्य से जुड़ा है। जब कोई स्त्री इस व्यवसाय को अपनाती है तो वह वास्तव में अपनी स्वतंत्रता का वरण कर रही होती है। उसे यह स्वतंत्रता प्राप्त होती है कि वह किससे अपने शारीरिक संबंध बनाए या किससे नहीं। गैर-कानूनी होने के कारण इस व्यवसाय में लड़कियों को धोखे और तस्करी के माध्यम से बड़े पैमाने पर धकेला जा रहा है। हजारों किशोरियों की तस्करी इस व्यवसाय में बड़े पैमाने पर की जा रही है। इसी के साथ बाल वेश्यावृत्ति का अपराध पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती के रूप में सामने आया है। समलैंगिक वेश्यावृत्ति भी तेजी से बढ़ रही है। लड़के भी अब वेश्यावृत्ति को अपना रहे हैं उन्हें जिगोलो कहा जाता है। इन अपराधों की कड़ी निगरानी के लिए जरूरी है कि इसे कानून के दायरे में लाया जाए ताकि जबरन वेश्यावृत्ति पर रोक लग सके।
वेश्यावृत्ति के समर्थकों की बात के प्रत्युत्तर में विरोधियों का मानना है कि यदि बात सिर्फ शारीरिक क्षुधा को शांत करने की है तो आत्म-नियंत्रण और समझ-बूझ का व्यावहारिक जीवन में स्थान बने रहना, समाज के उच्च स्तर पर जाने की निशानी है। बेहतर समाज और बेहतर मनुष्यों के निर्माण के लिए आवश्यक है कि नैतिकता के उच्च प्रतिमान बने रहें। वेश्यावृत्ति के व्यवसाय के संबंध में विरोधियों का तर्क है कि इस व्यवसाय में कोई भी स्त्री अपनी इच्छा या स्वतंत्रता से नहीं आती। इस व्यवसाय का चुनाव अत्यधिक दबाव और विवशता के वातावरण में होता है। विरोधी पक्ष का मानना है कि इस व्यवसाय के लिए पहले अपराधों के कारणों को समझना होगा, इसमें अशिक्षा, गरीबी और असमानता के ढांचे को देखना होगा। वेश्याओं से संबंधित आंकड़े यही बताते हैं कि वे प्रायः अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी होती हैं, दूसरा पेट की आग ऐसा दबाव बनाती है कि दूसरा रास्ता उन्हें नहीं सूझता तथा कुछ निहित स्वार्थी तत्व इस अपराध को संरक्षण प्रदान करते हैं। अतः यह सर्वमान्य है कि वेश्यावृत्ति के स्थलों पर उचित साफ-सफाई तथा जनस्वास्थ्य संरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि एड्स जैसी संक्रमित बीमारियों की रोकथाम हो सके।
अतः इन सभी तथ्यों को देखने के पश्चात् हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हम अपने आर्थिक और सामाजिक ढांचे को इस तरह खड़ा करें कि व्यवसाय कभी भी हमारे मूल्यों पर हावी न हो। मानवता को और अधिक परिभाषित करने वाली नैतिकता जीवन का आधार होनी चाहिए। भारतवर्ष में वैवाहिक संबंध के बाहर यौन संबंध अच्छा नहीं समझा जाता, लेकिन दो वयस्कों के यौन संबंध यदि वह जनशिष्टाचार के विपरीत न हो, कानून इसे व्यक्तिगत मामला मानता है, जो दंडनीय नहीं है। भारतीय दंड विधान 1860 से ‘वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक’ 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्यव्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। वेश्यावृत्ति का उन्मूलन सरल नहीं है, पर ऐसे सभी संभव प्रयास किए जाने चाहिए जिससे इस व्यवसाय को प्रोत्साहन न मिले, समाज में नैतिकता का हृस न हो और जनस्वास्थ्य पर रतिज रोगों का दुष्प्रभाव न पड़े। समाज के अपेक्षित सहयोग के अभाव में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।….