मानव जीवन की तीन महत्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं—रोटी, कपड़ा और मकान। अर्थात् जीवन जीने के लिए व्यक्ति को दो वक्त की रोटी, तन ढंकने के लिए कपड़ा और सिर ढंकने के लिए एक छत मिल जाए। वास्तविक रूप से मानव जीवन की यही मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं। मगर मानवीय जीवन की यह प्रकृति ही है कि वह मूलभूत आवश्यकताओं के साथ थोड़ी सुविधा, सहूलियत और सहजता को भी प्राथमिकता देता है। देखा जाए तो यहीं से लोभ के बीज उत्पन्न होने लगते हैं। यहीं से थोड़ी-थोड़ी सुविधाएं प्राप्त करने के लिए मनुष्य के लिए ये चीजें आगे चलकर आवश्यक या अति आवश्यक चीजों में परिवर्तित होने लगती हैं। जैसे—पहले पहिए का आविष्कार कर रथ, बैलगाड़ी बनी, रफ्तार को तेज करने के लिए साइकिल, बाइक और फिर कार इत्यादि चीजें बनीं।
कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है, मगर मनुष्य जब अपनी सुविधा के लिए आविष्कार करता है तो यह उसकी आवश्यकता का आधिक्य है, जो लोभ को जन्म देता है। यह वैज्ञानिक रूप से विकास और प्रगति की बात है मगर हमें इसका विनाशक पक्ष या रूप भी देखने को मिलता है जो मानव जाति के लिए खतरनाक है। इन्सान की प्रवृत्ति है कि उसकी इच्छाओं का कोई अन्त नहीं। भगवान बुद्ध ने भी मनुष्यों के दुखों का कारण उनकी खुद की इच्छाओं का अन्त न कर पाना माना है।
जब मनुष्य की ये इच्छाएं पूरी नहीं होती तो मनुष्य मानसिक विकार की स्थिति का शिकार हो जाता है और इस आवश्यकता रूपी लोभ का शिकार केवल व्यक्ति ही नहीं, एक जाति समूह ही नहीं, एक राष्ट्र भी हो जाता है। अब तो लगभग विश्व के कई देश इसकी जकड़ में हैं।
लोभ को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है—‘‘दूसरे की धन-संपत्ति या कोई वस्तु लेने की तीव्र इच्छा, कामना या लालच।’’
अर्थात् लोभ का प्रथम संवेदनात्मक अवयव है—किसी वस्तु का बहुत अच्छा लगना, उससे बहुत सुख या आनंद का अनुभव ही ‘लोभ’ है। यानी उसे अच्छी लगने के कारण आवश्यकता से अधिक अच्छी जान पड़ती है। चाहे वह वस्तु दूसरे इन्सान के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो, उसके जीवन का आधार हो मगर जिसको वह चीज अच्छी लगी वह किसी भी कीमत या किसी भी हद तक उसे पाने का प्रयास करता है। न मिलने पर ईर्ष्या, द्वेष, घृणा जैसे भयानक मनोविकार उस दूसरे आदमी के लिए उत्पन्न हो जाते हैं। बस यहीं से दो इंसानों के बीच संघर्ष शुरू हो जाता है, जिसका परिणाम भयानक भी हो सकता है। इस लोभ से देश का भूत, वर्तमान और भविष्य पूरी तरह प्रभावित हैं।
ईसा से 262 साल पहले की बात है, कलिंग के युद्ध में चारों ओर खून ही खून हो गया, इसने कई नस्लों को बर्बाद किया और कारण था सम्राट अशोक की यह इच्छा कि उन्हें बड़ा साम्राज्य चाहिए। लेकिन उसी दौर में उसी क्षेत्र की फिजां में एक स्वर गूंज रहा था महात्मा बुद्ध का, जो अपरिग्रह पर जोर दे रहे थे, और कह रहे थे कि आवश्यकता ही दुख का मूल है। हालांकि सम्राट अशोक को शुरू में इसका महत्व समझ नहीं आया, लेकिन जब खून बहा तो वे इस संदेश का अर्थ समझ गए और बौद्ध धर्म को गले लगाया और एक बड़े साम्राज्य की जगह सुखी साम्राज्य की स्थापना की।
मानव जाति का इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जहां आवश्यकता से उपजे लोभ ने नस्लें बर्बाद की हों, चाहे बड़े राज्य के लिए दुर्योधन की इच्छा से उत्पन्न महाभारत का रण हो या फिर नवीन साम्राज्यों के बीच युद्ध का होना रहा हो। आधुनिक इतिहास में प्रथम विश्व युद्ध इसी लोभ का परिणाम था और इसी तरह उसके बाद हिटलर की वृहद साम्राज्य की आवश्यकता ने भी मानवता को मिट्टी में मिलाया है।
वर्तमान में विद्यमान आतंकवाद और उससे पीड़ित विश्व के कारण भी यही हैं। पश्चिमी शक्तियों द्वारा तेल पर कब्जे और अपने प्रभुत्व को बढ़ाने के क्रम में पश्चिमी एशिया में हस्तक्षेप ने संघर्ष को बढ़ाया और फिर इसमें धार्मिक पहलू के आने और सभ्यताओं के बीच संघर्ष के सिद्धांत ने स्थिति को बदतर किया। शीत युद्ध और उससे उपजे उन्माद, परमाणु बमों की होड़ और मानव विनाश का आग के गोले तक सीमित हो जाने के मूल में भी यही है।
इससे पूर्व भी औद्योगिक क्रांति से उपजे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के कारणों में भी लोभ ही था। इसने अति राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद को जन्म दिया, जिसने मानव जाति के बड़े हिस्से को संकट में डाला। विकसित देशों द्वारा कई नस्लों के आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक शोषण ने विकासशील देशों के स्वछंद विकास को नष्ट कर दिया और उन्हें अभी युद्धोत्तर काल में भी बौद्धिक रूप से गुलाम बनाया जा रहा है। इसके लिए नवउपनिवेशवादी रणनीतियां इस्तेमाल की जा रही हैं। जैसे घाना के राष्ट्रपति नाना अकूफो ने कहा—‘‘नव-उपनिवेशवाद नवसाम्राज्यवाद की अंतिम अवस्था है।’’ इसके लिए विकसित देशों द्वारा बहु राष्ट्रीय निगमों और उनके द्वारा निर्धारित व्यवस्था और मानकों के माध्यम से यह सब किया जा रहा है। इसने विश्व में उत्तर-दक्षिण विभाजन पैदा किया है। और यह सब गंभीर भू-राजनैतिक संकटों की ओर बढ़ सकता है।
इसी कड़ी में दूसरे छोर पर विश्व को आज के समय में पर्यावरणीय समस्याएं आतंकित कर रही हैं और इनका कारण प्रकृति का अधिकाधिक दोहन है। विकसित देशों की भौतिकवादी व्यवस्था ने इसको चरम पर पहुंचा दिया है। कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं और कई लुप्त होने के कगार पर हैं। आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजों के कृत्यों के कारण कितने संकट में रहेगी इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। महात्मा गांधी ने भी कहा था, ‘‘हमारी पृथ्वी के पास लोगों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, किंतु स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं। इसके अलावा मानवीय संसाधनों के संदर्भ में इसने श्रम के शोषण से असमान समाज तैयार किया और इससे बहुत सारी अमानवीय समस्याएं पैदा हुई हैं।
लेकिन यह दोहन केवल संसाधनों के लिए सत्य नहीं है, जीवन के हर पहलू को यह प्रभावित करता है जैसे आज की पूंजीवादी व्यवस्था में आवश्यकताएं और लोभ बढ़ते जा रहे हैं। उनका उनके पर्यावरण से अलगाव हो रहा है। लोग परिवार को समय नहीं दे पा रहे हैं। साथ में पूंजी व्यवस्था के कार्य में विभाजन के कारण वे अपने कार्य को देखकर खुश भी नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि वे बहुत बड़े प्रोजेक्ट के छोटे से हिस्से पर कार्य कर रहे हैं। मार्क्सवादी विचारधारा इसे ही कार्य से अलगाव कहती है। इस तंत्र ने एक अघोषित प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है। जैसे एक पड़ोसी की भौतिकवादी चीजों को देखकर दूसरे पड़ोसी का दुखी होना और उसकी अंधी होड़ में दौड़ पड़ना, इससे मानसिक तनाव बढ़ा है, सच्चा सुख कम हुआ है। जीवन में संघर्ष बढ़ा है, वैमनस्य बढ़ा है, प्रेम कम हुआ है, आपसी विश्वास कम हुआ है। ये किसी भी जीवंत मानवीय समाज के लिए अच्छी चीज नहीं है।
इसका मनोवैज्ञानिक पहलू यह है कि मनुष्य को पता ही नहीं चलता और वह आवश्यकता और लोभ के प्रति अंधा होता चला जाता है। और यह जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई देता है। जैसे एक व्यापारी धन के प्रति अंधा होता है, उसी तरह कुछ लोग अपने धार्मिक, जातीय और साम्प्रदायिक विचारों को लेकर चरम पर पहुंच जाते हैं और अंत में द्वेष और बर्बादी ही हाथ लगती है। जैसे हमारे नेता, संत पुरोहित और बाबाओं की लोभ पिपासा दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। आए दिन अखबार भरे रहते हैं सांप्रदायिक दंगों के किस्सों से, हमेशा समाज असामाजिक तत्त्वों से भरा दिखाई देता है।
इतना ही नहीं आज के समय में इससे उपजी प्रतिस्पर्धा ने बच्चों तक नहीं छोड़ा है। छोटे-छोटे बच्चे मोटे-मोटे बस्ते टांगे अपने माता-पिता की इच्छाओं को ढोते हैं और उनके अभिभावक परीक्षा के अंकों को लेकर उनका बचपन बर्बाद कर रहे हैं।
वहीं लोभ के कारण सामाजिक अपराध भी जन्म लेते हैं। अधिक कमाने के चक्कर में एक पिता अपने बच्चों को समय नहीं दे पाता और दूरियां बढ़ती चली जाती हैं। दहेज जैसी सामाजिक बुराई का यही मूल कारण है—लोभ। यह लोभ ही है जो भाई-भाई के बीच बैर ला देता है। यह लोभ ही होता है जो व्यक्ति को इतना व्यस्त कर देता है कि वह ना तो बारिश में मिट्टी की खुशबू को महसूस कर सकता है और न ही रात में चांदनी की ठंडक को। लोभ ही है जो फूलों की खुशबू को इत्र की शीशी में समेट रहा है।
अतः स्पष्ट है, आवश्यकता और लोभ मानवीय जीवन को और उनकी आगे आने वाली नस्लों को बर्बाद कर रहा है।
‘‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू ना भूखा जाए।’’
‘‘उतने ही पैर पसारिए, जितनी चादर होय।’’
भारतीय मानवीय संस्थाओं ने हमेशा कम संग्रह की बात कही। फिर चाहे इस्लाम धर्म में जकात के रूप में या हिंदू धर्म में दान के रूप में सभी ने जरूरत से ज्यादा धन को निवेश करने की बात कही। कहीं न कहीं भारतीय संविधान भी इन्हीं सामाजिक मूल्यों को स्थापित करता है उसमें उल्लेखित नीति-निदेशक तत्व, सामाजिक-आर्थिक न्याय की बात करते हैं। ‘लोभ’—महाभारत करवाता है, वहीं ‘प्रेम’ पूरी दुनिया को एक करता है।