सदियों से भारत हमेशा किसी-न-किसी वजह से औपनिवेशिक देश रहा है। प्राचीन समय में वर्णव्यवस्था के कारण ब्राह्मणों का उपनिवेश रहा, फिर बाहर के मुल्कों से आए लोगों ने भारत को अपना औपनिवेशिक गंतव्य बनाया। आर्य, मुगल और फिर अंग्रेजों ने भारत की मूलभूत संस्कृति को अपना लिया, मगर अंग्रेजों ने ऐसी चाल चली कि आज भी हम पूरी तरह से आजाद नहीं बल्कि उनकी पद्धति के मानसिक गुलाम हैं।
‘‘पतंग बन उड़ रही हूं मैं, आसमान में,
पर गुलाम हूं मैं, डोर है मेरी किसी और के हाथ मैं।’’
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कविता की ये पंक्तियां उसी औपनिवेशिक मानसिकता से त्रस्त भारतीय जीवन की गाथा को प्रस्तुत कर रही हैं। आज भी असली आजादी कहां हैं? हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी तो आज तक अंग्रेजों की गुलाम है। औपनिवेशिक मानसिकता, जिसने विभिन्न आधारों पर समाज का विभाजन कर दिया। व्यक्ति का विभाजन उच्च-निम्न, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब तथा भाषाई आधारों पर कर दिया जाता है। इतिहास गवाह है कि किस तरह से हम उत्तर उपनिवेशवादी शक्तियों के शोषण के शिकार रहे हैं और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद ने किस तरह से हमारी जड़ों को खोखला बना दिया। इसीलिए भारतवासी घोर निराशा में डूब गए और कहने लगे—‘‘कोई नृप होय, हमें क्या हानि।
आज की शिक्षा प्रणाली अर्थात् शिक्षा का वह ढंग जो हमारे स्कूलों और कॉलेजों में प्रचलित है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज जिस रीति से हमारे कॉलेजों में शिक्षा दी जा रही है वह भारतीय रीति नहीं है, अंग्रेजों के शासन काल में इस प्रणाली का आरंभ हुआ है। विडंबना यह है कि आजादी के वर्षों बाद भी हम उसी प्रणाली को अपनाए हुए हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त और त्रस्त है। पठन-पाठन की प्रक्रिया इकतरफा है और वह भी सत्तावादी वातावरण में संपन्न होती है। इसमें सक्रिय सहभागिता, आपसी सहयोग या क्रियाशील तत्परता के स्थान पर श्रुति और स्मृति का बोलबाला है। इस परिवेश में छात्रों में कार्य नियोजन, उच्च स्तरीय चिंतन, नवाचार तथा क्रियात्मक गतिविधियों का नितांत अभाव है।
शिक्षा का उद्देश्य क्या है? समकालीन शिक्षा प्रणाली में इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता। आज के शिक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास है, पर कॉलेजों के पाठ्यक्रमों और विद्यार्थियों की रुचि को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि आज की शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी पाने तक सीमित रह गया है। शिक्षार्थी परीक्षार्थी बनकर रह गया है। आज शिक्षा केवल उच्च जीवन स्तर की प्राप्ति का साधन होकर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में अवमूल्यन की ओर जा रही है। उन्हीं विषयों की ओर छात्रों और व्यवस्था का रुझान है, जो आर्थिक लाभ को सुनिश्चित करते हैं। वाणिज्य और विज्ञान की तुलना में मानविकी विषयों की उपेक्षा एक तरह से नैतिकता और मानवता को विमर्श से बाहर करने की कोशिश है। इसी तरह मैकाले ने अंगे्रेजी का प्रचार-प्रसार करके हम पर एक भाषाई साम्राज्यवाद थोप दिया जिसकी यह मान्यता थी कि अंग्रेजी बोलने वाले ही सर्वश्रेष्ठ हैं। इससे बाकी भाषाओं को बोलने वाले व्यक्तियों में एक अजीब किस्म की हीनता का बोध आता गया। दूसरी ओर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति को अंग्रेजी इतिहासकारों और प्रशासकों द्वारा सार्वभौमिक संस्कृति के रूप में पेश किया गया।
नस्लवाद, जातीय भेदभाव की ये तमाम धारणाएं अंग्रेजों के पहले भी सामाजिक संस्कृति का अंग बन गई थीं जहां जमींदारों द्वारा जनता का क्रूर शोषण होता था तथा कर्ज न चुकाने पर किसानों की जमीन हड़प लेना आम बात थी। ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों ने शूद्रों का आर्थिक, सामाजिक तथा मानसिक और शारीरिक शोषण किया जिनकी यह दृढ़ मान्यता थी कि इस जाति के स्त्री-पुरुष उनके गुलाम हैं और उनके सर्वस्व पर उनका हक है। शूद्रों को मंदिर में प्रवेश करने, उच्च वर्ग के व्यक्तियों के साथ उठने-बैठने और उनके प्रयोग में लाई जाने वाली किसी भी वस्तु को छूने का कोई अधिकार नहीं था। यहां तक कि अगर गलती से भी उन्होंने वेद वाक्य सुन लिए तो उनके कान में खोलता हुआ तेल डालने की बात कही गई। वे जिस रास्ते चलते थे उसे उन्हें साफ करते हुए चलना पड़ता था।
वर्तमान समाज में आज जिसके पास ज्यादा धन-दौलत है, सरकार और अन्य व्यवस्था सिर्फ उसी पूंजीपति वर्ग के लिए ज्यादा सोचती है। अधिकांश भारतीय अभिजातों की ब्रिटिश शासन के साथ मिली-भगत ने भारतीय और विदेशियों, दोनों को अंधा बना दिया था। औपनिवेशिक भारत ने ब्रिटिश बोलचाल, परिधान, तौर-तरीकों एवं जीवन-शैली में अंग्रेजों की संस्कृति को ग्रहण कर लिया। निश्चित रूप से सभी उपनिवेशवादी ताकतें अपने अधीनों की मानसिकता को औपनिवेशिक बनाने का प्रयास करती हैं। आज भले ही हम आधुनिक होने का ढोंग कर लें, परंतु रूढ़िवादी मानसिकता आज भी रूढ़ और जड़ है जो भारत की सफलता में बाधक है।
आज के समय में व्यक्ति की योग्यता को कम आंका जाता है, जबकि उसके कपड़ों के ब्राण्ड, उसके महंगे जूतों एवं महंगी गाड़ियों के आधार पर उसकी पहचान होती है। पूरी नितांत भोगवादी तरह होना भी अच्छा नहीं है। ये समाज की बुराइयों के लक्षण हैं। विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं। पूरा वन्य-जीवन इससे प्रभावित हो रहा है। वन्य जीवों की प्रजातियां लुप्त हो रही हैं जो पर्यावरण असंतुलन का प्रमुख कारक है जिसकी वजह से पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में है। आदिवासियों को उनके रहने के प्राकृतिक स्थानों से खदेड़ा जा रहा है। मुख्य धारा में शामिल करने के नाम पर उनको सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन की प्राकृतिक शैली से अलग करके, स्लम बस्तियों की घुटन भरी जिंदगी जीने पर मजबूर किया जा रहा है।
देखा जाए तो भारतीय समाज एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। ‘महाभारत’ शंकाओं और संदेहों से भरा जटिल ग्रंथ है, परंतु दूसरा महान ग्रंथ ‘रामायण’ भी, जो बुराई पर अच्छाई की वजह के अधिक सरल तथा स्पष्ट सिद्धांत का वर्णन करता है। हर चरित्र और गुण, यहां तक कि सीता की पवित्रता और लक्ष्मण की निष्ठा को भी संदेह की कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। रामानुज की पुस्तक ‘द कलेक्टेड एस्सेज’ में परोपकार की भावना, अर्थात् बिना किसी स्वार्थ के जनहित में कार्य करने की किसी व्यक्ति की क्षमता को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। अविश्वास का यह वातावरण दो विपरीत, परंतु सहअस्तित्व रखने वाली दुनिया की रचना करता है—एक श्रद्धा की और दूसरी द्वेष की। जब शक्ति के केंद्र का गुरुत्वाकर्षण तनाव सशक्त होता है, तब श्रद्धा अभिव्यक्त होती है, जब यह तनाव कमजोर पड़ जाता है तो द्वेष उभरता है और संतुलन की स्थिति में तब दोनों साथ-साथ रहते हैं। इसी तरह की प्रवृत्ति भारतीय लोगों में घर कर गई है जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को सब सलाम करते हैं चाहे वह आत्मिक रूप से कितना ही बुरा क्यों न हो, परंतु जब अच्छे व्यक्ति के दिन खराब चलते हैं तब हर कोई उसे छोड़ कर चला जाता है। अतः यह अंधविश्वासी मानसिकता हमारे समाज को निश्चित रूप से असफल बना रही है। गांधी जी ने कहा था कि न कोई व्यक्ति पहला है और न कोई आखिरी, लोकतंत्र की इस व्यवस्था में हर कोई बराबर है और इस तंत्र की सफलता तभी मानी जाएगी जब पंक्ति में खड़े अंतिम आदमी तक विकास की लहर पहुंचेगी और उस व्यक्ति के हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी। आज भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न प्रजातांत्रिक देश है जहां प्रत्येक नागरिक को मताधिकार प्राप्त है। वह ही भारत का भाग्य-निर्माता है। अतः भारत में अब औपनिवेशिक मानसिकता चलते रहने का कोई औचित्य नहीं है।